रेपका का इतिहास
1970 के प्रारंभ में, भारतीय रेल पहियों की आपूर्ति के लिए टाटा लौह एवं इस्पात कंपनी और हिंदुस्तान इस्पात, दुर्गापुर पर निर्भर रहता था । रेलवे की जरूरतों को टाटा कारखाना द्वारा पूरा न कर पाने के कारण, रेलवे की पूरी जरूरतों के लिए दुर्गापुर पहिया व धुरा कारखाना से आपूर्ति कराने की योजना बनाई गई । हालांकि इन दो इकाइयों से प्राप्त आपूर्तियों से भी रेलवे की जरूरत पूरी न हो रही थी और भारतीय रेल को काफी हद तक पहियों,धुरों और टायरों के लिए आयात पर निर्भर करना पड़ रहा था।
विदेशी विनिमय में रिसाव के अलावा आयात की लागत बहुत ज्यादा थी और विश्व बाजारों में मूल्य में वृद्धि भी हो रही थी । उसी दौरान रेलों के पास चल स्टाक की संख्या निरंतर बढ़ रही थी । आयात के लिए वित्त का प्रबंध करना एवं आपूर्ति में होने वाले विलंब के कारण वैगन का उत्पादन और चल स्टॉक अनुरक्षण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा ।
इसी परिप्रेक्ष्य में, 1971 के मध्य में रेल मंत्रालय ने पहिया और धुरा कारखाना स्थापित करने के बारे में गंभीरता से विचार करने लगा ।
तत्पश्चात्, तत्कालीन रेल मंत्री श्री के. हनुमंतैय्या ने अपने 1972-73 के बजट में घोषणा की कि :
''कुछ शक्तियों से प्राप्त तथाकथित विदेशी सहायता जिसे बंद किया गया या बंद करने की धमकी दी जाती रही है, के बाद भारत सरकार ने आत्मनिर्भरता की नीति को अपनी प्रेरक शक्ति बनायी है । रेलवे इस निति को पूरी तत्परता से लागू करना चाहता है । हमने पहियों एवं धुरों एवं ट्रैक्शन गियर के विनिर्माण के लिए दो नई परियोजनाएं प्रारंभ करने का प्रस्ताव किया है । स्वदेशी उत्पादन के अधीन पहियों एवं धुरों की हमारी जरूरत के कुछ हिस्से की ही पूर्ति की जाती है और बाकी खरीद विदेशों से किया जा रहा है जिसका मूल्य सालाना रु.5.8करोड़ होता है । पहियों एवं धुरों की मांग बढ़ती जा रही है । प्रस्तावित कारखाना रेलवे की एक और रेलवे उत्दापन यूनिट हो जाएगी जिसमें प्रति वर्ष 20,000 पहिया सेटों एवं 25,000 खुली धुरों का निर्माण किया जाएगा जिससे रेलवे वास्तव में आत्मनिर्भर हो जाएगा ।''
तत्कालीन उप मुख्य याँत्रिक इंजीनियर/उपूरे, श्री एच.एस. कपूर द्वारा इस संबंध में अध्य्यन किया गया एवं कास्ट पहिए, फोर्ज की गई धुरे एवं एसेंबल किए गए पहिया सेटों के निर्माण की क्षमता वाले एक कारखाना लगाने की पुष्टि की गई ।
आगे, विभिन्न पहलुओं जैसे स्क्रैप एवं कच्ची सामग्रियों के परिवहन की सुविधा, धुरा फोर्ज करने के लिए ब्लूम की उपलब्धता, आवश्यक औजार एवं संयंत्र की आपूर्ति के लिए औद्योगिक क्षेत्र से निकटता, ऑक्सीजन एवं एसिटीलीन गैस, इलेक्ट्रोड्स और ग्रेफाइट मोल्ड, बिजली की दरें इत्यादि पर विचार करते हुए विस्तृत अध्ययन किया गया ।
कारखाना लगाने के लिए पंजाब एवं मैसूर(अब कर्नाटक) राज्य जहाँ बिजली की दरें न्यूनतम थी विभिन्न स्थानों का सर्वेक्षण किया गया । तत्पश्चात् नागपुर, नवलूर, पापिनायकनहल्लि,यलहंका, रायचूर एवं मैसूर को पसंदीदा स्थानों के रूप में चुना गया । अंततः यलहंका, बंगलूरु सिटी के एक उपनगर को सबसे अच्छे स्थान के रूप में चुना गया जो पहिया एवं धुरा कारखाना लगाने के लिए ज्यादातर शर्तों को पूरा कर रहा था ।
बाद में, यहलंका में कारखाना स्थापित करने के लिए कार्रवाई आरंभ करने एवं विस्तृत अध्ययन करने के लिए बोर्ड कार्यालय में एक मुख्य परियोजना अधिकारी और एक उप परियोजना अधिकारी की एक परियोजना टीम गठित की गई । 1972 के अंत तक, विशेष कार्य अधिकारी (परियोजना एवं उत्पादन यूनिट) एवं मुख्य परियोजना अधिकारी (पहिया एवं धुरा कारखाना) वाली एक उच्च टीम को उपकरणों एवं प्रक्रिया के विशेष अध्ययन के लिए यूरोप, यू.एस.ए. एवं कनाडा प्रतिनियुक्त किया गया । इस टीम की यात्रा ने ग्रिफिन पहिया कंपनी यू एस ए से कास्ट पहिया प्रौद्योगिकी और ऑस्ट्रेलिया से जीएफएम प्रकार लाँग फोर्जिंग मशीन द्वारा धुरा के फोर्जिंग करने के विचार को अपनाया गया । विश्व बैंक से वित्तीय सहायता ली गई ।
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